Kuchh Kshanikaen

Saturday, May 1, 2010

नव निर्माण

नव वर्ष न जाने देंगे खाली |

मिला किसी को प्रेम का घड़ा,
सुखा मिला, किसी को शांति |
कोई सस्ते दाम चढ़ गया 
तो हो गयी किसी की शादी|

कहीं बम फटा,
             कहीं प्यार बटा,
                           कहीं बट गयीं यादें |
फिर किसी राह में,
               बस इसी आँह से,
                              बंद हो गयीं सासें|

दीवाली सा ताज-काण्ड,
हाँ, दीवाली सा ताज-काण्ड,
और राजनीति की कीचड़ होली|
 ख़ूनी खेल बना सत्यागृह,
 बोल रहे सब कड़वी बोली|

कहते हैं, भारत महान, पर भूखे नंगे रहते हैं,
हाँ कहते हैं, भारत महान, पर भूखे नंगे रहते हैं|
निकल पड़ो जिस तरफ, उधर ही ढेरों पग-पग चलते हैं |

पापनाशिनी की विडम्बना, खुद पर ही शायद रोती है|
कितनो को अब साफ़ करे, हर चीज की एक हद होती है|

मतदान भी करना तो अब जैसा "मुक्तिदान" सा लगता है|
रोज-रोज की बात है ये, अब कुछ न नया सा लगता है|
भूला-भक्त भूमि-भूतल-भगवान कि निंदा करता है|
ये कवि भी तो, नीर के प्यासे मरू के जैसा, जीवन यापन करता है|

रिक्त पड़े हैं जीवन-अक्षर, कह रहा है ये मन 'व्यभिचारी' |
क्रन्तिकारी बन जाओ फिर से, कुछ करने की आई है बारी|
नव निर्माण राष्ट्र का कर दें, फिर बने 'भगत', जाएँ बलिहारी|
आओ मिल कर लें शपथ, सभी, नव वर्ष न जाने देंगे खाली|

आओ मिल कर लें शपथ, सभी, नव वर्ष न जाने देंगे खाली|

आओ मिल कर लें शपथ, सभी, नव वर्ष न जाने देंगे खाली|

Sunday, April 25, 2010

कवि सम्मेलन : द्वितीय संकलन

कवि खसरा : हमारे ये कवि जरा विशेष हैं| ये बीमारियों से इतना ज्यादा ग्रसित रहते हैं कि अपनी कविताओं में भी उनके कारणों  और उनको फ़ैलाने वालो का ही उल्लेख करते हैं| तो इनकी इस रचना का मजा उठाते हैं :)

 भावनाओं को समझो


जानम मेरी, सुन लो सदा ये मेरी
बस मै प्यार तुम्ही से करता हूँ,
तुम जब, कीचड़ में रोज नहाती तो
मै छिप-छिप के आंहे भरता हूँ|

मोरनी जैसे पंख तुम्हारे,
आँखे क्या कजरारी हैं|
बिदक रहे हैं सारे मच्छर
सबको चाह तुम्हारी है|

पर मै सबसे तगड़ा इनमे,
आतंक है मैंने फैलाया|
मलेरिया, डेंगू के चलते
कितनो को मैंने टपकाया|

ऐश्वर्या हो या कैटरीना
सब के सब मुझसे डरते हैं|
भिन-भिन करते जब मै आता हूँ,
सल्लू भईया भी फिर भगते हैं|

खून चखा मैंने इन सब का
पर ये दिल तुम पर अटका है|
बद्दुवाएँ देता हूँ इनको, क्यों के
एक डंक अब भी मेक-अप में लटका है|

तुम मेरी बन जाओ तो फिर,
साथ उड़ेंगे साथ चलेंगे|
दिन भर दोनों प्यार करेंगे,
रात में चैन से खून पियेंगे|

मशहूर हुआ हूँ मै इतना
की नाना पाटेकर कहते हैं|
(सब जानते हैं "एक मच्छर आदमी को हिंजड़ा बना देता है ")
T.V.  वाले भी त्रस्त सभी,
और राजू भईया तो मच्छर चालीसा जपते हैं|

कहते हैं सब बड़े,सयाने,
के मै अब सुर में गाता हूँ|
थोडा सा खोया रहता हूँ,
थोडा सा गुम हो गया हूँ|

भरकस तुमसे बोल रहा हूँ,
अब कुछ मै कर जाऊंगा|
बना के तुमको अब मै अपना
प्रेम ग्रन्थ लिख जाऊंगा|

कसम खाएँगे सारे मच्छर,
प्यार हमारा ऐसा होगा|
तुम बन जाओगी रानी मेरी,
और जीवन में प्यार-प्यार बस प्यार ही होगा| 
तुम बन जाओगी रानी मेरी,
और प्यार-प्यार बस प्यार ही होगा|

Sunday, April 11, 2010

कवि सम्मेलन : प्रथम संकलन



कवि सम्मेलन : ये मेरा ही लिखा हुआ एक काल्पनिक कवि सम्मेलन है| इसमें सम्मिलित हुए विभिन्न रसों के कवि और इनका क्षणिक परिचय इस प्रकार है :
* कवि दिलजोड़े 'आशिक'
* कवि फलने सिंह 'सोते'
* कवि बीमार खोते 'खसरा'
* कवि अल्लारक्खा 'नशेड़ी'
* कवि दुर्घटना
* कवि दिल-टूटे

१. कवि दिलजोड़े 'आशिक' : हमारे ये कवि जरा आशिक मिज़ाज हैं| हमेशा ऐसी कविताएँ लिखते हिं जो इनकी ही तरह दूसरे आशिको के भी काम में आये| खैर इनकी पहली कविता जो ये सुना रहे हैं वाकई में इनके ही दिल की आवाज है| कहते हैं, ये कविता सीधे दिल टक पहुचती है :)| देखते हैं फिर ,

वो राह कहाँ से लाऊं

दरवाजे हैं बंद सभी 
चाहत के , दीवानों के  
प्रियतम जो तेरे दिल तक पहुचे  
मै वो राह कहाँ से लाऊं  


मन मंदिर तो जोड़ चूका हूँ  
बंधन सारे तोड़ चुका हूँ  
अब तेरे मन को भी छू लूँ  
बस ऐसी वीणा के तार बजाऊँ  
प्रियतम जो तेरे दिल तक पहुंचे  
मै वो राह कहाँ से लाऊं  


हर पग तेरी आहट पहुचे  
हवा ये कैसे गीत सुनाए  
तुझ बिन तरसे मेरे नैना  
तुझ बिन क्यूँ अब जिया न जाए  
दिल में जो तस्वीर बसी है  
उसके कैसे चित्र बनाऊ 
प्रियतम जो तेरे दिल तक पहुचे  
मै वो राह कहाँ से लाऊं  


तेरी  अभिलाषा में डूबा  
मन मेरा हर पल कहता है  
तुझ संग लागे जबसे नैना  
रोम-रोम वंदन करता है  
सपने जो देखे हैं मैंने  
कैसे सच मै कर दिखलाऊँ  
प्रियतम जो तेरे दिल तक पहुचे  
मै वो राह कहाँ से लाऊं  
मै वो राह कहाँ से लाऊं |||||

Sunday, March 28, 2010

नेता जी का इंटरव्यू

हमने  उन्हें  गुफ्तगू  के  लिए  जो  सरोकार  किया ,
तो  उन्होंने  बा-मुलायजा  बा-अदब  होशियार  किया .
(फिर  मैंने  सोंचा )आपके  होश-ओ-अंदाज  खतरनाक  नजर  आते  हैं ,
बातों  से  गवार ,चेहरे  से  चोर  और  पोशाक  से  नेता  नजर  आते  हैं.

तो Interview  शुरू   हुआ
और  हमने  कहा-

नेताजी  आपकी  क्या  कद्रदानी  है ,जीत  रहे  हैं ,
लोग  पेट  काट  के  जीते  हैं ,आप  किडनी  निकल  के  सी  रहे  हैं  !
कहीं  घाटा ,कहीं  घोंटा  तो  कहीं  घोटाला  है ,
दिशाएँ  गूँज  रही  हैं  बस  आपका  ही  बोलबाला  है .


तो  नेताजी  बोले -

अब  हमें  क्या  पाता  था  बात  इतनी  भारी  हो  जाएगी ,
रिजर्वेशन  देना  ही  महा-मारी  हो  जाएगी .

होली  के  सरे  रंग  पवित्र  हैं ,खेल  लो
क्या  पाता  था  नेतागिरी  का  रंग  गाली  हो  जाएगी .

"पर  हम  सुधार  इस  व्यवस्था  में  लाएँगे "
हमारी  अर्थ -व्यवस्था  भी  "प्राण -प्यारी"  हो  जाएगी .
घोटाला  हुआ  तो  क्या , हमने  भी  लालू  से  सीखा  है
यही  अगले  चुनाव  की  नारे -बाजी  हो  जाएगी .

Wednesday, March 24, 2010

मेरा उद्देश्य : मेरा सत्य

मै  तो एक परदेसी हूँ,
सुत  धरा  का मै बहुभेशी  हूँ,
मै तो बस चलता जा रा हूँ
बस अचल सा बढ़ता जा रा हूँ|

मस्तक में एक जिज्ञासा है
   आँखों में खेल तमाशा है
कानो में एक हलचल सी है
   हलचल में एक नशा सा है|

मिटटी की खुशबु लिए हुए
   सब बोली मिश्रित किये हुए
बिखरी मुस्काने सिये हुए
   उगते सूरज का नमन किये
अपनी धुन में मै जा रा हूँ
बस अचल सा बढ़ता जा रा हूँ|

सूरज की लाली मुझमे है
    तारों की चमचम मुझमे है
हाँ चाँद सी शीतलता मुझमे
    जग की खुशहाली मुझमे है,

कभी ग्रीष्म काल सा जलता हूँ
    फिर कभी शीत के जैसा ठंडा हूँ
सांवन की ऋतू में झूम झूम
    मै उड़ता हुआ पतंगा हूँ|
प्यासा सा मै चहुँ घूम घूम
    इस लौ में मिलता जा रा हूँ
मै  तो एक परदेसी हूँ,
सुत  धरा  का मै बहुभेशी  हूँ,
मै तो बस चलता जा रा हूँ
बस अचल सा बढ़ता जा रा हूँ|


कभी जीवन ले में उलझ गया
    कभी पावनता से बिछड़ गया
सही-गलत की उलझन में
   कभी मानवता से पिछड़ ही गया,

अपना और पराया क्या
ना मेरा कोई गंतव्य ठिकाना है
मैंने तो बस है ये सीखा
यही जीना और मरजाना है|

बस 'उस पिता' का मै संदेशी हूँ,
मानवता का सकल हितैषी हूँ,
मै तो बस चलता जा रा हूँ,
बस अचल सा बढ़ता जा रा हूँ|

सपनो की दुनिया और सच्चाई का धरातल

एक आदमी सो रहा है. वो अपने सपने में संसार को देखता है . वो देखता उसका मन उसको कितनी सुन्दर जगह ले आया है.चारों तरफ खुशहाली है . संसार में सब कुछ अच्छा है. पर जब सुबह होती है तो वो सोंचता है की सच्चाई ये नहीं है तो  वो उठाना नहीं चाहता है वो जनता है की दुनिया में कितनी बुराई व्यपित है....और अंत में वो सब समाप्त कर देना चाहता है ....बस इस पर ही ये टूटी फूटी कविता आपके समक्ष रख रहा हूँ.....कुछ कमी हो तो जरूर बताये
***Description of His dream******
हसीं था वो जहाँ
        थीं सारी खुशियाँ वहाँ .
सूरज तनहा ना रहता था
        चाँद तारों से कहता था.
वो भव्य नजारा सुन्दर सा
       वो प्यार धरा का , गंगा माँ .

चारों ऑर उजाला है,  सूरज  राह दिखा रा है
बह रही ज्ञान की गंगा है, हर कोई पाप मिटा रा है.

कहीं कलकल-कलकल की तरंग,
               यहाँ पंक्षी भरते हैं उमंग,
वो हवा में उरती एक पतंग,
              नहीं डोर काटने का घमंड,
सब सात सुरों को गाते हैं
               है फैली हुई घटा सतरंग.

वर्ण-व्यथा नहीं है जग में
         बस प्यार घुला है हर रग में
सब रंग फिजा में बिखरे हैं
         नहीं भेद भाव है अब डग में

*****Now he is realizing that its d morning time n he has to wake up******

मन ही मन मै हठ खेल रहा
         था स्वप्न मैं सुन्दर देख रहा
पर ये सब यादों की माया है
         था मैं सच्चाई से खेल रहा.

*****Now he is thinking abt d real world*******

है पता धरा की बाँहों में
        व्यपित हुई बुराई है .
धर्म हो चुके झूठे हैं
        अब उपहासित सच्चाई है
सब रंगमहल में खोये हैं
        है इज्जत सभी गवाई है
अब आग हमें भड़कानी है
       न  ये शब्द मात्र की लड़ाई है .


*****After thinking this all he is urging to Nature ki "Ab wo sab kuchh khatam kar dene ka AAvhan kar raha hai"******

आव्हान

जागो हे माँ प्रकृति तुम जागो
       हे नभ बस अब तुम छ जाओ
आव्हान सुनो सब शिव जी का
       अब तांडव मुख दिखला जाओ

हर कंठ लगा चिल्लाने है , क्या बहरा हुआ खुदाई है,
उपहास हुआ जग जननी का, कष्टित धरा कराही है,
हे नभ,जल हे समीर सुन लो,अब शिव-तांडव की बारी आई है
..............................


अब शिव-तांडव की बारी आई है

कुछ कही, कुछ अनकही

कुछ यूं था मैंने होश सम्हाला
जीवन जैसे ढूँढ निकाला
भूंख प्यास तो वस्त्र थे मेरे 
और कंगाली जैसे माला|
मै तो अबोध था दुनिया से,
दुनिया से दुनियादारी से |
धर्म-अधर्म के झंझावत से
सीमाओ के घेरे से|
चलते जाना बस काम था मेरा
चलते-चलते कहीं पहुच गया
फिर दीवारों में खोया ऐसा,
के जीवन सारा वहीँ सिमट गया|
बचपन में कभी एक गलती पे
मात पड़ी दुत्कार मिली|
मन ही मन कहता रहता था
भगवन, क्या इस दुनिया में सब सही काम ही करते हैं !!!
सब कहते थे,
मै करता था
सब हस्ते थे,
मै डरता था मै
हर पल सोंचा करता था
क्यों सब मुझ पर हुकुम चलाते हैं?
खुद तो गददो पे सोते हैं,
मुझे साडी रात जागते हैं|
मन की व्याकुलता किसे कहूँ
किससे प्यार जताऊँ मैं,
मानवता क्यूँ यूँ ठिठुर गयी
अब किसकी आस लगाऊं मैं.
क्यूँ व्यर्थ सा है मेरा जीवन
क्यूँ मुझसे कोई प्यार नहीं करता|
अनिवेषित से हैं ख्वाब ये क्यूँ
क्या मुझमे मानव का तत्त्व नहीं बसता|
इश्वर ने भी खूब है खेला
भ्रमित किया मेरा जीवन|
एक पल को भी ये न सोंचा
मुझमे भी तो है उसका ही कण-कण|

बस ये ही है कोरा जीवन मेरा
कुछ तनहा, कुछ अनचाहा
बस ऐसी ही हैं मेरी बातें
कुछ कही, कुछ अनकही......