Kuchh Kshanikaen

Wednesday, March 24, 2010

कुछ कही, कुछ अनकही

कुछ यूं था मैंने होश सम्हाला
जीवन जैसे ढूँढ निकाला
भूंख प्यास तो वस्त्र थे मेरे 
और कंगाली जैसे माला|
मै तो अबोध था दुनिया से,
दुनिया से दुनियादारी से |
धर्म-अधर्म के झंझावत से
सीमाओ के घेरे से|
चलते जाना बस काम था मेरा
चलते-चलते कहीं पहुच गया
फिर दीवारों में खोया ऐसा,
के जीवन सारा वहीँ सिमट गया|
बचपन में कभी एक गलती पे
मात पड़ी दुत्कार मिली|
मन ही मन कहता रहता था
भगवन, क्या इस दुनिया में सब सही काम ही करते हैं !!!
सब कहते थे,
मै करता था
सब हस्ते थे,
मै डरता था मै
हर पल सोंचा करता था
क्यों सब मुझ पर हुकुम चलाते हैं?
खुद तो गददो पे सोते हैं,
मुझे साडी रात जागते हैं|
मन की व्याकुलता किसे कहूँ
किससे प्यार जताऊँ मैं,
मानवता क्यूँ यूँ ठिठुर गयी
अब किसकी आस लगाऊं मैं.
क्यूँ व्यर्थ सा है मेरा जीवन
क्यूँ मुझसे कोई प्यार नहीं करता|
अनिवेषित से हैं ख्वाब ये क्यूँ
क्या मुझमे मानव का तत्त्व नहीं बसता|
इश्वर ने भी खूब है खेला
भ्रमित किया मेरा जीवन|
एक पल को भी ये न सोंचा
मुझमे भी तो है उसका ही कण-कण|

बस ये ही है कोरा जीवन मेरा
कुछ तनहा, कुछ अनचाहा
बस ऐसी ही हैं मेरी बातें
कुछ कही, कुछ अनकही......

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